विषय और परिस्थिति के अनुरूप शब्दों का सही स्थान-निर्धारण तथा वाक्यों की उचित योजना ही उत्तम गद्य की कसौटी है। यद्यपि वर्तमान में प्रचलित हिंदी भाषा खड़ी बोली का परिनिष्ठित एवं साहित्यिक रूप है, परंतु खड़ी बोली स्वयं अपने आपमें कोई बोली नहीं है। इसका विकास कई क्षेत्रीय बोलियों के समन्वय के फलस्वरूप हुआ है। विद्वानों ने इसके प्राचीन रूप पर आधारित तत्वों की खोज करने के बाद यह माना है कि खड़ीबोली का विकास मुख्यता ब्रजभाषा एवं राजस्थानी गद्य से हुआ है। कुछ विद्वान इसको दक्खिनी एवं अवधी गद्य का सम्मिश्रीत रूप भी मानते हैं। आज हिंदी गद्य का जो साहित्यिक रूप है; उसमें कई क्षेत्रीय गोलियों का विकास दृष्टिगोचर होता है।
हिंदी गद्य के आविर्भाव कि संबंध में विद्वानों के अलग-अलग मत हैं। कुछ 10 वीं शताब्दी मानते हैं तो बहुत तेरे तेरहवीं शताब्दी राजस्थानी एवं ब्रज भाषा में हमें गध के प्राचीनतम प्रयोग मिलते हैं। राजस्थानी गद्य की समय सीमा 11 वीं शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी तक ब्रजभाषा गद्य की समय सीमा चौदहवीं शताब्दी से 16 वीं शताब्दी तक मानना उचित होता है। अतः यह स्पष्ट है कि 10वीं 11वीं से 13 मी शताब्दी के मध्य ही हिंदी गद्य का आविर्भाव हुआ था। अध्ययन की दृष्टि से हिंदी गद्य साहित्य के विकास को निम्नलिखित काल क्रम में विभाजित किया जा सकता है --
- 1. पूर्व भारतेंदु युग अथवा प्राचीन युग -
- > तेरहवीं शताब्दी से 1868 ईसवी तक ।
- 2. भारतेंदु युग -
- > सन 18 सो 68 ईस्वी से 1920 ईस्वी तक
- 3. द्विवेदी युग -
- > सन 1980 से 1922 ईस्वी तक
- 4. शुक्ल युग (छायावादी युग) -
- > सन 1922 ईस्वी से 1938 ईस्वी तक
- 5. शुक्लोत्तर युग (छायावादोत्तर युग) -
- > सन 1938 ईस्वी से 1947 ईस्वी तक
- 6. स्वातंत्र्योत्तर युग -
- > सन 1947 ईस्वी से अब तक
1. पूर्व भारतेंदु युग अथवा प्राचीन युग -
इस युग के अंतर्गत हिंदी गद्य के उद्भाव से भारतेंदु युग के पूर्व तक का समय लिया गया है प्रस्तुत हिंदी गद्य साहित्य के आदिकाल में हिंदी गध के प्राचीन रूपोही यंत्र-तंत्र उपलब्ध होते हैं। राजस्थान व दक्षिण भारत में तो अवश्य हिंदी गद्य के प्रारंभिक रूप की झलक मिलती है। उत्तर भारत में ब्रजभाषा गद्य के हिंदी उदाहरण अधिक मात्रा में प्राप्त होते हैं प्राचीन युग में काव्य-रचना के साथ-साथ गद्य रचना की दिशा में भी कुछ स्फुट प्रयास लक्षित होते हैं ।।
2. भारतेंदु युग
19वीं शताब्दी के अंतिम चरण में हिंदी साहित्य का आकाश भारतेंदू हरिश्चंद्र (सन 1850 - 1885) के पूर्व प्रकाश से जगमगा उठा। उससे कुछ वर्ष पूर्व हिंदी खड़ी बोली गद्य के क्षेत्र में दो महत्वपूर्ण व्यक्ति गद्य की दो भिन्न-भिन्न शैलियों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। एक थे राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद (सन 1823-1885), दूसरे थे राजा लक्ष्मण सिंह ( सन 1826-1896) । राजा शिव प्रसाद ने हिंदी को पाठशालाओं के पाठ्यक्रम में स्थान दिलाने का महत्वपूर्ण कार्य किया था। भी हिंदी का प्रचार तो चाहते थे किंतु उसे अधिक नफीस बनाकर उर्दू जैसे रूप प्रदान करने के पक्ष में थे। दूसरी और राजा लक्ष्मण सिंह संस्कृतनिष्ठ हिंदी के पक्षपाती थे । भारतेंदु ने इन दोनों सिम आंतों के बीच का मार्ग ग्रहण किया। उन्होंने हिंदी गध को वहां रूप प्रदान किया जो हिंदी प्रवेश की जनता की मनोभावना के अनुकूल था। उस गद्य व्यवहारिक, सजीव और प्रवाहपूर्ण है, उन्होंने यथासंभव लोक प्रचलित शब्दावली का प्रयोग किया है। उनकी वाक्य छोटे छोटे और व्यंजक हैं । कहावतों, लोकोक्तियों और मुहावरों के यथोचित प्रयोग से उनकी भाषा प्रणव आन और स्वभाविक बन गई है । इतना होने पर भी भारतेंदु कागद पूर्ण परिमार्जित नहीं है। उनका गद्दी ब्रजभाषा के प्रयोगों से प्रभावित है और कहीं कहीं व्याकरण की त्रुटियां खटकती है।।
3. द्विवेदी युग
4. शुक्ल युग (छायावादी युग)
सन 1919 में पंजाब के जलिया वाले बाग मैं आयोजित सभा में निहत्थे तथा और सहाय जनता को गोलियों से भून दिया गया। 1920 ईस्वी में गांधी जी ने व्यापक असहयोग आंदोलन आरंभ किया, किंतु लगभग 2 वर्ष बाद ही या आंदोलन स्थगित कर दिया गया। कुछ वर्ष बाद सन् 1931 में सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी भगत सिंह को फांसी दी गई । इस घटनाओं ने राष्ट्रीय चेतना और दृढ़ किया। युवकों का कल्पनासील मानस कुछ कर गुजरने के लिए तड़पने लगा । इस युग में पराधीनता और विवशता की अनुभूति से आकुल होकर यदि कोई वेदना और पीड़ा के गीत गाए गाय गए । तो दूसरे ही क्षण स्वाधीनता के लिए सतत संघर्ष की बलवती प्रेरणा से उत्साहित होकर और आत्मविश्वास की भावना को मुखरीत किया गया। दिवेदी युग सब मिलकर नैतिक मूल्यों के आग्रह का युग था । इसीलिए नवीन भावनाओं से प्रेरित युग लेखक इसी प्रतिक्रिया स्वरूप भाव-तरल, कल्पना-प्रधान एवं स्वच्छंद चेतना से युक्त साहित्य रचना में प्रवृत हुए। यह प्रवृत्ति कविता और गधे दोनों ही क्षेत्रों में लक्षित होती है । सन 1919 से 1938 तक के कालकांड को हिंदी साहित्य के इतिहास में छायावाद युग नाम दिया गया है ।
5. छायावादोत्तर युग
सन 1936 ईस्वी के बाद देश की स्थिति में तेजी से परिवर्तन आरंभ हुआ। सन 1937 में कांग्रेस ने पूरे देश में अपने व्यापक प्रभाव का परिचय देते हुए 6 प्रांतों में अपना मंत्रिमंडल बना लिया। एक बार ऐसा लगा कि हम स्वतंत्र के दौर पर खड़े हैं। किंतु शीघ्र ही निराश होना पड़ा। सन 1939 में द्वितीय महायुद्ध आरंभ हो गया। कांग्रेस ने इंग्लैंड को युद्ध में सहायता देना इस शर्त पर स्वीकार किया कि वह शीघ्र भारत में एक स्वतंत्र जनतंत्र वादी सरकार की स्थापना करें। सन 1940 में आचार्य विनोबा भावे के नेतृत्व में व्यक्तिगत सविनय अवज्ञा आंदोलन आरंभ किया गया । सोनू नहीं सौ बयालीस में "क्रिप्स मिशन" भारत आया और अपने उद्देश्य मैं असफल रहा। इसी वर्ष कांग्रेश ने "भारत-छोड़ो" का ऐतिहासिक प्रस्ताव पास किया । देश में उग्र आंदोलन हुआ और ब्रिटिश सरकार ने उसका पूरी शक्तिि से दमन किया। सन 1945 मेंें महायुद्ध समाप्त हुआ । राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना से प्रेरित लेखकों नेेे क्रमशः यथार्थवादी जीवन दर्शन को महत्व देना आरंभ किया। छायावादी युग के कोई लेखक नई भूमि पर पदार्पण कर नवीन युग-चेतना के अनुसार साहित्य रचना में प्रवृत्ति हुए। फलस्वरुप सन 1938 के बाद छायावाद का अंत हुआ । उसके बाद के साहित्य को छायावादोत्तर साहित्य कहा गयाा है।
6. स्वातंत्र्योत्तर युग
इस युग के लेखकों में विद्यानिवास मिश्र, हरिश्चंद्र परसाई, फणीश्वर नाथ रेणु, कुबेरनाथ राय, धर्मवीर भारती, शिव प्रसाद सिंह आदि उल्लेखनीय हैं। विद्यानिवास मिश्र अपनी मांगलिक दृष्टि, सांस्कृतिक चेतना, आधुनिक जीवन बौद्ध के लिए प्रसिद्ध है। उनका गद्य उनके व्यक्तिगत को साकार करता है।